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गाँव का सफर

(पहले कितने हसीन थे)

 

कच्ची दीवारों पर छप्पर पड़े थे...

थे घर छोटे छोटे पर दिल के बड़े थे...

 

वो आमों की बगीयां वो सावन के झूले..

वो कपड़े की गेंदें और लकड़ी के टोले..

पनघट पर सखियां हंसी के ठिठोले..

थे कंकड़ के गुटके और गुड़िया के खेले..

 

वो कंची, वो कोड़ी, वो टेसू, वो कुदें,

अखाड़ों की वर्जिश और दंगल लड़े थे...

थे घर छोटे छोटे पर दिल के बड़े थे...

गाँव का सफर

पहुंचते थे सबके और वाहन नहीं थे..

यूं ही धींगा मस्ती कोई साधन नहीं थे.

बेरहम चौमासा नहीं थे पक्के घर..

गिरती दीवारें टपकते थे छप्पर..

 

भीगते ठिठुरते ही छतों कि मरम्मत,

दुखों का था दरिया पर मिल के खड़े थे...

थे घर छोटे छोटे पर दिल के बड़े थे...

 


गाँव का सफर

(अब क्या हो गए)

 

चुनावी कलह ने आपस में बांटे..

रिजर्वेशन ने भ्रातत्व में मेरे तमाचे..

घर पक्के पक्के गली भी हैं पक्की..

ना ओखली न सिल है ना मथनी ना चक्की..

 

अकेले है साथी बस टी वी मोबाइल,

खाली हैं चौपाल पर जो माचे पड़े थे...

थे घर छोटे छोटे पर दिल के बड़े थे...

 


गाँव का सफर

ना गाएँ न बछड़े ना बैलों की जोड़ी..

न आल्हा न ढोल्हा ना रांझा ना होरी..

न हुक्के ना चिलमें ना चूल्हे का धुआं..

ना मसकें पखालें न पनघट ना कुआं..

 

ना रसिया ना रामधुन नौटंकी मल्हारें,

निनुआ काका जो लीला में रावण बने थे...

थे घर छोटे छोटे पर दिल के बड़े थे...

गाँव का सफर

(क्या होना चाहिए था)

 

किसान निधि बंटना भी ठीक नहीं है..

लिए ऋणों की माफी भी ठीक नहीं है...

बांटोगे खेरात तो सभी याचक बनेंगे..

कर्ज न चुकेगा ईश कोप के भाजक बनेंगे..

 

पुरखो ने सिखाया कि मेहनत का खाना,

भूखे मरे मगर स्वाभिमान से खड़े थे...

थे घर छोटे छोटे पर दिल के बड़े थे...

गाँव का सफर

फसलों को हो खाद बीज मुकम्मल..

सूखे खेतों को नहरी पानी का संबल..

तकनीकी उन्नति और यांत्रिक सुगमता..

शिक्षा चिकित्सा और जातीय समता..

 

मौसम पर हो शोध कहे फिर ना कोई ,

कभी ओले, सूखा, बाढ़, तूफा से मरे थे..

थे घर छोटे छोटे पर दिल के बड़े थे...

 

भारतेंद्र शर्मा "भारत"

धौलपुर

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1 Comments

mrityunjay sharma

19-Mar-2021 01:04 PM

nice

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